Tuesday, September 14, 2010

बिना नींद कि गोलियां खाए !

सड़क के किनारे करतब दिखाता एक कलाकार
चार सूखे बांसों पर अपनी जिन्दगी का तानाबाना बुनता है
इन चार बांसों को वो गाढ़ देता है अपने संघर्षों की सख्त जमीन पर
और मजबूरी की एक रस्सी खींच देता है दोनों सिरों के बीच
तब शुरू करता है कभी ख़त्म न होने वाली एक दूरी
और पहुँच जाता है रस्सी के दूसरे छोर पर इस भाव के साथ
कि आज उसके बच्चे भूखे नहीं सोएंगे
रात को उन्ही बांसों पर पन्नी डालकर रोज तैयार करता है अपना घर
और पूरी करता है अपनी नींद रातभर उस पन्नी का एक छोर पकड़कर
बिना नींद कि गोलियां खाए !

Monday, May 3, 2010

किसी ने दिल में मुझे आज उतारा होगा.....

"क्यों घुल रही है खुशबू आज इन हवाओं में?
किसी ने सूखे गुलाबों  को दुलारा  होगा |
क्यों  बढ़ गयी है नमी आज  इन फिजाओ  में?
किसी ने रो के मेरा नाम पुकारा होगा |
किसी ने फिर से मुझे अक्स में देखा होगा
किसी  ने फिर से मुझे आँखों में सवारा होगा
यूँ तो बहुत मिले नजरों में बसाने वाले
किसी ने दिल में मुझे आज उतारा होगा |"

नहीं जनता हूँ ....

"तुम चाँदनी सी शांत हो,
तुम जल सी हो निर्मल
तुम कुमोदिनी का फूल हो,
या हो शवेत कमल
किस वेश  में तुम हो, किस रंग में तुम हो
किस भाव में तुम हो, किस उमंग में तुम हो
नहीं जनता हूँ  किस संसार में तुम हो?
जहाँ भी हो मेरे इंतजार में तुम हो,
जहाँ भी हो सिर्फ मेरे प्यार में तुम हो|

तुम मुक्त हो पवन सी ,
हो विचारों  सी सहज
काव्य सी सरस हो,
या मेरी कल्पना महज,
नहीं जनता हूँ  किस किरदार में तुम हो ?
जहाँ भी हो मेरे इंतजार में तुम हो,
जहाँ भी हो सिर्फ मेरे प्यार में तुम हो|"

Saturday, March 27, 2010

"मैं नहीं आऊंगा याद तुम्हे "

'मेरी यादों के दर्पण पर एक धुंध समय की छाएगी,

और में समृति के कोहरे में बनके किस्सा खो जाऊंगा,

पर जब भी भावों की द्रष्टि इस धुंध धुंए को चीरेगी,

मैं तेरे नयन के पुष्पों पर बनके ओंस छा जाऊंगा'

मैं नहीं आऊंगा याद तुम्हे जीवन के हार रंगी क्षण में ,

जब बात कोई दुःख की होगी मैं याद तुम्हे तब आऊंगा,

एक बार बुलाने की मुझको कोशिश अपने दिल से करना
मैं बारिश की बूंदों सा तेरी आँखों से बह जाऊंगा !'

'मैं राही एक तू राही एक जीवन का सफ़र मंजिले अनेक,

मैं बंधा अपने उद्देश्य से हूँ मंजिल हरेक न पाउँगा ,

पर जिस भी मंजिल से होकर ये राह मेरी बढ़ जाएगी,

मैं उस मंजिल की धूलि पर फिर अपने कदम बनाऊंगा,

मैं नहीं आऊंगा याद तुम्हे जब और भी राही आएँगे,

जब बात हमसफ़र की होगी मैं याद तुम्हे तब आऊंगा,

एक बार बुलाने की मुझको कोशिश अपने दिल से करना
मैं बारिश की बूंदों सा तेरी आँखों से बह जाऊंगा !'

Wednesday, March 24, 2010

"मैं बुद्धिजीवी हूँ"

"मैं बुद्धिजीवी हूँ !

अपनी योग्यता, शिक्षा और कुशलता से अपना पेट भरता हूँ

प्रतिदिन अपनी निश्चित दिनचर्या में बंधा, दूसरों को कोल्हू का बैल बनने से सतर्क करता हूँ

मैं समाज में सम्मानित हूँ, राजनीतिमें सम्मिलित हूँ

मुझे हर क्षेत्र का भला ज्ञान है,

बैठकों में तर्क वितर्क करना मेरी पहचान है

मैंने जीवन के मार्मिक पहलुओं को छुआ है ,

इतना की उनकी यादें भी अब धुआं हैं

मुझे हर समस्या विदित है ,

और उसका समाधान भी मुझमे सन्निहित है

पर क्या करू मेरा कार्य क्षेत्र संकुचित है,

और इसके बाहर जाना वर्जित है

क्योंकि मुझे अपनी योग्यता ,शिक्षा और कुशलता के पैसे मिलते हैं,

इसलिए क्रन्तिकारी विचार मन में भी नहीं पलते हैं

और मैं पैसे पर पलने वाला परजीवी हूँ

क्या करूँ मैं बुद्धिजीवी हूँ !"

"एक और वर्ष बीत गया"

कही न कही बातों का,

छोटे छोटे जज्बातों का,

हाथों में लिया हाथों का,

आधूरी मुलाकातों का,

जागी सोयीं रातों का,

तकदीर के इरादों का,

पूरे ना हो सके वादों का,

और ऐसी कितनी ही यादों का,

इतिहास बन एक और वर्ष बीत गया !"

Tuesday, March 23, 2010

जब तुम साथ थी !

'तुम साथ थीं

तो तुम्हारे प्यार की तपन भर देती थी मुझे एक नयी ऊर्जा से,

जो खर्चता था मैं कई कई कामों में अपने आपको तल्लीन करके,

और तुम कहतीं थी 'तुम व्यस्त हो', और मैं निरुत्तर था !'

'तुम साथ थीं

तो तुम्हारी खुशबू इस तरह समायी थी मेरे रग रग में,

की हार तिनका मुझे गंध बिखेरता प्रतीत होता था,

और तुम कहतीं थी 'तुम मुग्ध हो', और मैं निरुत्तर था!'

'तुम साथ थीं

तो तुम्हारे प्रेम ने दी थी इतनी आसक्तता मुझको,

की हर प्राणी से स्वतः ही घुल मिल जाया करता था मैं,

और तुम कहतीं थी 'तुम विमुख हो', और मैं निरुत्तर था!'

'तुम साथ थीं

तो तुम्हारे भावों को खोजता था प्रकृति के हर रंग में,

और कोशिश करता था उन रंगों से रंगने की जीवन को,

और तुम कहतीं थी 'तुम आसक्त हो', और मैं निरुत्तर था!'

'और अब कई काम अधूरे पढ़े हें पिछले कई दिनों से

कितने ही फूल बगिया में खिलाए हैं बसंत ने ,

कौन कौन पूछता फिर रहा है मेरा पता,

कैसे कैसे रंगों को ओढा है आज धरती ने,

पर आज मैं व्यस्त नहीं हूँ !

मुग्ध नहीं हूँ !

विमुख नहीं हूँ!

आसक्त नहीं हूँ !

क्योकि तुम साथ नहीं हो !

पर देखो आज मैं निरुत्तर भी नहीं हूँ !'