Wednesday, December 7, 2011

और आज जिन्दगी खूबसूरत लगी तुम्हारी तरह !

कल भी इतनी ही सर्द, इतनी ही नम थी ये हवा,
पर मैंने महसूस नहीं किया ठण्ड में तपन को!
कानों से गुज़रते हुए एक संगीत सा तो था,
पर नहीं भायी कोई भी धुन इस मन को!

कल नहीं देखा मैंने आँगन में खिले गुलाब को,
कल नहीं मसूस किया चाँद के शबाब को!
कल नहीं बेचैन था मैं शाम के इन्तजार में ,
कल नहीं कुछ खास था बसंत की बहार में!
कल नहीं भीगा था मैं बारिश की बोछार में,
कल नहीं खोया रहा रात भर विचार में !

फिर अचानक आईं तुम प्यार की लेकर सुबह ,
और आज जिन्दगी खूबसूरत लगी तुम्हारी तरह !

Sunday, November 13, 2011

जीवन प्रबंधन: कारण,कर्म और परिणाम


मूलतः मैंने इस लेख का विषय सिर्फ ' कारण,कर्म और परिणाम' ही रखा था परन्तु अंत में लेख के केंद्रीय भाव का उपयोग इस लेख के नामकरण में किया और इसके आगे मैंने 'जीवन प्रबंधन' जोड़ दिया क्योकि मुझे संदेह हुआ की पाठक विषय पड़ेगा और लेख को शुद्ध साहित्यिक मानकर इसमें अपनी रूचि खो देगा!

मेरा विश्वास है की लेख के अंत में आपको उपरोक्त पंक्ति का मर्म भली प्रकार से समझ आ जाएगा !

हमारे जीवन में हमारे द्वारा किया गया प्रत्येक कर्म किसी न किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कारण के द्वारा संचालित होता है और अंत में किसी न किसी वांछनीय या अवांछनीय परिणाम को जन्म देता है

अगर कारण हमारी सोच है तो निश्चित तौर पर परिणाम अवांछनीय ही होता है और वस्तुतः कारण सोच ही होती है हमारे विचार ही होते है परन्तु प्रश्न यह उठता है की क्या हमारी सोच और विचार को यह अधिकार दिया जाना उचित है की वह किसी कर्म को संचालित कर सके? जी हाँ !हमारे विचार ही कर्म का कारण बनते हे और यह उचित भी है परन्तु सिर्फ तब तक जब तक वे स्थिर हों,
समय के साथ हमारे विचारों में परिवर्तन निषेध हो,परन्तु यह स्वाभाविक तो नहीं !
अस्थिर जीवन में अस्थिर परिस्थितियों के चलते अस्थिर आवश्यकताओं के कारण उपजे हमारे विचार कैसे स्थिर हो सकते हैं?

अतः निष्कर्ष लिया जा सकता है की विचारो को हावी होने से पहले उनकी स्थिरता का परिक्षण किया जाना आवश्यक है!परन्तु पुनः प्रश्न उठ खड़ा होता है की क्या हमरी सोच जो हमारे विचारों की जननी है कभी स्थिर हो सकती है? इस प्रश्न का उत्तर दे पाना निश्चित तौर पर अपने आप में एक प्रश्न है परन्तु यह भी सत्य है किसी विषय पर हमारी सोच स्थिर नहीं तो तो कम से कम परिपक्व जरूर हो सकती है और परिपक्व सोच निश्चित तौर पर स्थिर विचारो को जन्म देतीं हैं!

अतः किसी भी निर्णय पर पहुँचने के पूर्व यह निश्चित कर लेना अत्यंत जरूरी है की उक्त विषय में हमारी सोच परिपक्व है या नहीं!पुनः प्रश्न उठता है की सोच की परिपक्वता को कैसे परखा जा सकता है?

सोच की परिपक्वता को जांचने के लिए हमें विषय के समस्त पहलुओं और भविष्य में उसकी सभी संभव अवस्थाओं को भली प्रकार से ध्यान में रखना चाहिए उद्हारण के लिए यदि हमें यह निर्णय लेना है की किसी व्यक्ति से हमारे सम्बन्ध को रिश्ते के किस दायरे में रखा जाये तो निश्चित रूप से हम ऐसी परिस्थितियों में वर्तमान को ज्यादा महत्त्व देते हैं और उसे किसी घनिष्ट रिश्ते का नाम देने मैं संकोच नहीं करते परन्तु हम भूल जाते हैं की न तो ये परिसिथितियाँ स्थिर हैं न ही इनसे उपजे हमारे मन के विचार तो इनका परिणाम कैसे सही हो सकता है? ऐसी स्थितयों में हमें तुरंत किसी निर्णय पर नहीं पहुंचना चाहिए और उसका अनावरण तो बिलकुल नहीं करना चाहिए क्योंकि निश्चित तौर पर भविष्य मैं हमे इस विषय के और अधिक पहलुओं को जानने का मौका मिलेगा तब हम अपनी सोच को परिपक्व कहने में अधिक समर्थ होंगे!

इसका अर्थ बिलकुल विपरीत परिस्थितियों में भी समझा जा सकता है उद्हारण के लिए अगर आप किसी व्यक्ति से अपने संबंधो को लेकर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहें हैं तो इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं की आप उस रिश्ते को बनने ही न दे और उस व्यक्ति को खो दें!

जब तक आप अपनी सोच की परिपक्वता की जांच नहीं कर लेते उस व्यक्ति से सम्यक रिश्ता बनाये रखें एसा न हो की जब तक आपको लगे की हाँ उक्त व्यक्ति को मेरे जीवन का हिस्सा बनने का पूर्ण अधिकार है और यह हर तरह से उचित भी है तब तक उस व्यक्ति के ह्रदय में आपके लिए नकारात्मक सोच परिपक्व हो चुकी हो और किसी परिणाम को जन्म दे चुकी हो और अब आप चाहकर भी परिस्थितियों को अपने पक्ष मैं नहीं ला सकते!

अतः अत्यावश्यक है की कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने विचारों को जाने उसके पीछे की सोच की परिपक्वता का परिक्षण करें और इस बीच परिस्तिथियों को सम्यक बनाये रखे जिससे आप किसी भी निर्णय का चयन स्वतंत्रता पूर्वक कर सकें जो भविष्य मैं निश्चित तौर पर एक सुखद परिणाम को जन्म दे सके!

भवदीय
हेमंत राठौर !

Wednesday, November 9, 2011

रात के अँधेरे की उनको क्या खबर,
जो लोग बस चाँद का दीदार करते हैं,
सिर्फ मंजिलों को चाहूँ इतना खुदगर्ज़ नहीं मैं,
हम तो उन मुसाफिरों में से हैं जो रास्तों से भी प्यार करते हैं!

Sunday, November 6, 2011

कल उसको फिर शिकायत थी मुझसे वजह-बे-वजह,
बढ़ी मुद्दत से इस बहाने चलो बात तो हुई!!!

Friday, July 29, 2011

नए विचार !

अब नहीं आते नए विचार,जो पहले बिना बुलाए ही चले ही चले आते थे 
मनोद्वार की खिड़की से झांकते हुए, सीधे ह्रदय में प्रवेश कर जाते थे 
फिर शुरू होता था तथ्यों  का एक गहन मंथन ,
जिनसे उपजते थे कुछ निष्कर्ष शब्दों का पहन आवरण,
शब्द जो वाणी से वेग पाते थे ,
और दुसरे ह्रदयो में प्रवेश कर,
अंतर्मन को झकझोड़ जाते थे,
कर देते थे अंकुरण पुनः नए विचारों का,
और करते अंत पल रहे मनोविकारों का ,
फिर जन्म लेती थी एक महान विचारधारा,
इस तरह कुछ विचार मिल इतिहास बनाते थे|
अब नहीं आते नए विचार ,जो पहले बिना बुलाए ही चले ही चले आते थे |
शायद बंद कर दी हे हमने,
अपने मन की सब खिड़कियाँ,
और जड़ दिए हैं तालें
ह्रदय के समस्त द्वारों पर, 
अब मेरे विचार मेरे ही मन में फडफडाते हैं,
और दुसरे ताला देख लौट जाते हैं,
पहले तो कभी विचार ऐसे न कैद पाते थे|
अब नहीं आते नए विचार ,जो पहले बिना बुलाए ही चले ही चले आते थे |




Thursday, July 21, 2011

'ज़िन्दगी'

है चन्द लम्हों की कहानी का एक नाम 'ज़िन्दगी',पर टूटते कितने फ़साने दरमिया एक पल के हैं......

Saturday, May 28, 2011

"अब चाय अच्छी नहीं लगती"

"Dedicated to all my clg friends...(specially Ankit Khare)

कल ऑफिस में मेरे एक सहकर्मी ने मुझसे कहा :"चाय पिओगे?"
मैंने कहा :"नहीं"

उसने कहा :"सुना है पहले तो तुम बहुत चाय पीते थे?"
मैंने कहा :"अब चाय अच्छी नहीं लगती"

उसने कहा :"क्यों चाय में क्या बदल गया ?चाय तो पहले जैसी ही है!"
मैंने कहा :नहीं ! चाय अब पहले जैसी नहीं रही....
उसने कहा: क्यों ?

 मैंने कहा:

पहले रोज 3 रूपए की चाय के लिए लड़ते थे,आज चाय की दुकान खरीदने के तो पैसे है पर कोई साथ बैठकर लड़ने  वाला नहीं ...

पहले चाय पिने निकल जाते थे मीलों दूर,आज क्यूबिकल के पीछे रखी चाय की मशीन भी बहुत दूर लगती  हे ...

पहले सोचते थे की चाय के हर एक घूँट में मजा हे,आज पता चला वो मजा चाय का नहीं था ...

ये सुनकर उसने चाय का आधा भरा कप बिना पिए रख दिया!

शायद उसे भी
"अब चाय अच्छी नहीं लगती ....."

Saturday, April 16, 2011

कविता

"नहीं लिखता कवि कोई, काव्य अपने बर्ताव से,
लिख दिया जाता है यह तो भावना के प्रभाव से,
ढाल देता है वो फिर वेदना को छंद में, 
दुनिया पढ़ती है जिसे कहकर कविता चाव से!"



Sunday, February 27, 2011

जब भी मिलती है...

जब भी मिलती है मैं आँखों से सदा देता हूँ ,
जब भी मिलती है मैं धड़कन से दुआ देता हूँ|
जब भी लगता हे मुझे दिल ये खाली-खाली सा,
मैं तेरी यादों की बारात सजा लेता हूँ|

तेरी ही याद में भीगे हुए हैं ख्वाब मेरे,
तेरी तलाश में सवाल बेहिसाब मेरे,
पूछता मैं हूँ और जवाब भी मैं देता हूँ,
साँस मैं न भी लूँ पर नाम तेरा लेता हूँ,
दर्द जितना भी हो सीने में दबा लेता हूँ| 

जब भी मिलती है मैं आँखों से सदा देता हूँ ,
जब भी मिलती है मैं धड़कन से दुआ देता हूँ|

Wednesday, February 23, 2011

फांसले

कुछ  इस तरह हमारे फांसले बढ़ते गए,
मैं तुम्हारे लिए रुका रहा तुम मेरे लिए चलते गए!