Sunday, November 13, 2011

जीवन प्रबंधन: कारण,कर्म और परिणाम


मूलतः मैंने इस लेख का विषय सिर्फ ' कारण,कर्म और परिणाम' ही रखा था परन्तु अंत में लेख के केंद्रीय भाव का उपयोग इस लेख के नामकरण में किया और इसके आगे मैंने 'जीवन प्रबंधन' जोड़ दिया क्योकि मुझे संदेह हुआ की पाठक विषय पड़ेगा और लेख को शुद्ध साहित्यिक मानकर इसमें अपनी रूचि खो देगा!

मेरा विश्वास है की लेख के अंत में आपको उपरोक्त पंक्ति का मर्म भली प्रकार से समझ आ जाएगा !

हमारे जीवन में हमारे द्वारा किया गया प्रत्येक कर्म किसी न किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कारण के द्वारा संचालित होता है और अंत में किसी न किसी वांछनीय या अवांछनीय परिणाम को जन्म देता है

अगर कारण हमारी सोच है तो निश्चित तौर पर परिणाम अवांछनीय ही होता है और वस्तुतः कारण सोच ही होती है हमारे विचार ही होते है परन्तु प्रश्न यह उठता है की क्या हमारी सोच और विचार को यह अधिकार दिया जाना उचित है की वह किसी कर्म को संचालित कर सके? जी हाँ !हमारे विचार ही कर्म का कारण बनते हे और यह उचित भी है परन्तु सिर्फ तब तक जब तक वे स्थिर हों,
समय के साथ हमारे विचारों में परिवर्तन निषेध हो,परन्तु यह स्वाभाविक तो नहीं !
अस्थिर जीवन में अस्थिर परिस्थितियों के चलते अस्थिर आवश्यकताओं के कारण उपजे हमारे विचार कैसे स्थिर हो सकते हैं?

अतः निष्कर्ष लिया जा सकता है की विचारो को हावी होने से पहले उनकी स्थिरता का परिक्षण किया जाना आवश्यक है!परन्तु पुनः प्रश्न उठ खड़ा होता है की क्या हमरी सोच जो हमारे विचारों की जननी है कभी स्थिर हो सकती है? इस प्रश्न का उत्तर दे पाना निश्चित तौर पर अपने आप में एक प्रश्न है परन्तु यह भी सत्य है किसी विषय पर हमारी सोच स्थिर नहीं तो तो कम से कम परिपक्व जरूर हो सकती है और परिपक्व सोच निश्चित तौर पर स्थिर विचारो को जन्म देतीं हैं!

अतः किसी भी निर्णय पर पहुँचने के पूर्व यह निश्चित कर लेना अत्यंत जरूरी है की उक्त विषय में हमारी सोच परिपक्व है या नहीं!पुनः प्रश्न उठता है की सोच की परिपक्वता को कैसे परखा जा सकता है?

सोच की परिपक्वता को जांचने के लिए हमें विषय के समस्त पहलुओं और भविष्य में उसकी सभी संभव अवस्थाओं को भली प्रकार से ध्यान में रखना चाहिए उद्हारण के लिए यदि हमें यह निर्णय लेना है की किसी व्यक्ति से हमारे सम्बन्ध को रिश्ते के किस दायरे में रखा जाये तो निश्चित रूप से हम ऐसी परिस्थितियों में वर्तमान को ज्यादा महत्त्व देते हैं और उसे किसी घनिष्ट रिश्ते का नाम देने मैं संकोच नहीं करते परन्तु हम भूल जाते हैं की न तो ये परिसिथितियाँ स्थिर हैं न ही इनसे उपजे हमारे मन के विचार तो इनका परिणाम कैसे सही हो सकता है? ऐसी स्थितयों में हमें तुरंत किसी निर्णय पर नहीं पहुंचना चाहिए और उसका अनावरण तो बिलकुल नहीं करना चाहिए क्योंकि निश्चित तौर पर भविष्य मैं हमे इस विषय के और अधिक पहलुओं को जानने का मौका मिलेगा तब हम अपनी सोच को परिपक्व कहने में अधिक समर्थ होंगे!

इसका अर्थ बिलकुल विपरीत परिस्थितियों में भी समझा जा सकता है उद्हारण के लिए अगर आप किसी व्यक्ति से अपने संबंधो को लेकर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहें हैं तो इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं की आप उस रिश्ते को बनने ही न दे और उस व्यक्ति को खो दें!

जब तक आप अपनी सोच की परिपक्वता की जांच नहीं कर लेते उस व्यक्ति से सम्यक रिश्ता बनाये रखें एसा न हो की जब तक आपको लगे की हाँ उक्त व्यक्ति को मेरे जीवन का हिस्सा बनने का पूर्ण अधिकार है और यह हर तरह से उचित भी है तब तक उस व्यक्ति के ह्रदय में आपके लिए नकारात्मक सोच परिपक्व हो चुकी हो और किसी परिणाम को जन्म दे चुकी हो और अब आप चाहकर भी परिस्थितियों को अपने पक्ष मैं नहीं ला सकते!

अतः अत्यावश्यक है की कोई भी निर्णय लेने से पूर्व अपने विचारों को जाने उसके पीछे की सोच की परिपक्वता का परिक्षण करें और इस बीच परिस्तिथियों को सम्यक बनाये रखे जिससे आप किसी भी निर्णय का चयन स्वतंत्रता पूर्वक कर सकें जो भविष्य मैं निश्चित तौर पर एक सुखद परिणाम को जन्म दे सके!

भवदीय
हेमंत राठौर !

1 comment:

S.N SHUKLA said...

सार्थक, सटीक और सामयिक प्रस्तुति, आभार.

मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें , आभारी होऊँगा.