'तुम साथ थीं
तो तुम्हारे प्यार की तपन भर देती थी मुझे एक नयी ऊर्जा से,
जो खर्चता था मैं कई कई कामों में अपने आपको तल्लीन करके,
और तुम कहतीं थी 'तुम व्यस्त हो', और मैं निरुत्तर था !'
'तुम साथ थीं
तो तुम्हारी खुशबू इस तरह समायी थी मेरे रग रग में,
की हार तिनका मुझे गंध बिखेरता प्रतीत होता था,
और तुम कहतीं थी 'तुम मुग्ध हो', और मैं निरुत्तर था!'
'तुम साथ थीं
तो तुम्हारे प्रेम ने दी थी इतनी आसक्तता मुझको,
की हर प्राणी से स्वतः ही घुल मिल जाया करता था मैं,
और तुम कहतीं थी 'तुम विमुख हो', और मैं निरुत्तर था!'
'तुम साथ थीं
तो तुम्हारे भावों को खोजता था प्रकृति के हर रंग में,
और कोशिश करता था उन रंगों से रंगने की जीवन को,
और तुम कहतीं थी 'तुम आसक्त हो', और मैं निरुत्तर था!'
'और अब कई काम अधूरे पढ़े हें पिछले कई दिनों से
कितने ही फूल बगिया में खिलाए हैं बसंत ने ,
कौन कौन पूछता फिर रहा है मेरा पता,
कैसे कैसे रंगों को ओढा है आज धरती ने,
पर आज मैं व्यस्त नहीं हूँ !
मुग्ध नहीं हूँ !
विमुख नहीं हूँ!
आसक्त नहीं हूँ !
क्योकि तुम साथ नहीं हो !
पर देखो आज मैं निरुत्तर भी नहीं हूँ !'